9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाता है, जो दुनिया भर में आदिवासी समुदायों की संस्कृति, अधिकारों और अस्तित्व को सम्मान देने के लिए समर्पित है. यह दिन न केवल आदिवासियों के संघर्षों और उपेक्षाओं की याद दिलाता है, बल्कि उनके अधिकारों को बचाने और उनके सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास के लिए प्रयासों को भी प्रेरित करता है।

1994 में संयुक्त राष्ट्र ने इस दिन को शुरू किया था, और तब से यह वैश्विक स्तर पर आदिवासी समुदायों के सशक्तिकरण का एक महत्वपूर्ण मंच बन गया है। यह दिन भी वर्ष 2025 में महत्वपूर्ण होगा क्योंकि दुनिया भर में आदिवासी समुदाय जलवायु परिवर्तन, शोषण, विस्थापन और पहचान के संकटों से जूझ रहे हैं।
आदिवासी समुदायों ने सबसे पुरानी और प्राकृतिक जीवन शैली अपनाई है। उनकी संस्कृति, भाषा, परंपराएं और जीवनशैली मानव सभ्यता की विविधता का अद्भुत उदाहरण हैं, क्योंकि वे प्रकृति के साथ सामंजस्य में जीवन जीते हैं। भारत सहित दुनिया भर में कई आदिवासी समुदायों की अपनी अलग-अलग पहचान है, लेकिन सभी का एक साझा गुण है: प्रकृति से उनका गहरा संबंध होता है।
भारत में आदिवासी समुदायों से लगभग 10 करोड़ लोग हैं, जो कुल जनसंख्या का लगभग 8.6% हैं। वे अधिकतर झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल, उत्तर-पूर्वी राज्यों और आंध्र प्रदेश में रहते थे। विकास परियोजनाओं के नाम पर आदिवासियों को उनकी मातृभूमि से बाहर निकाला जाता है। उद्योगों, बड़े बांधों और खनन परियोजनाओं ने उनकी जमीन को छीन लिया जाता है।
शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण वे शोषित होते हैं। उन्हें आज भी समाज में “मुख्यधारा” से अलग समझा जाता है।आदिवासी क्षेत्रों में अक्सर स्कूलों और चिकित्सा सुविधाओं की कमी होती है। उनका विकास इससे बाधित होता है।उनकी भाषाएं, लोकगीत, नृत्य और परंपराएं आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्ति के कगार पर हैं।जलवायु परिवर्तन आदिवासी समुदायों पर सीधे प्रभाव डालता है। उनके पारंपरिक जीवन को जंगलों की कटौती, मौसम में परिवर्तन और प्राकृतिक संसाधनों की कमी ने खतरा पैदा कर दिया है।
हर साल, संयुक्त राष्ट्र इस दिन के लिए एक विशेष विषय चुनता है, जो उस वर्ष के महत्वपूर्ण मुद्दों पर आधारित होता है। वर्ष 2025 का विषय हो सकता है: जलवायु न्याय और आदिवासी अधिकार: सामूहिक भविष्य की ओर।इस विषय में यह विचार किया जा सकता है कि आदिवासियों का पारंपरिक ज्ञान और जीवन शैली जलवायु परिवर्तन से निपटने में कितनी फायदेमंद हो सकता है। और जलवायु संकट के समाधान में उन्हें कैसे सक्रिय भागीदार बनाया जा सकता है।
भारत में आदिवासी समुदायों को संवैधानिक रूप से “अनुसूचित जनजाति” कहा जाता है। उन्हें आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकार देने के लिए कई कानूनी प्रावधान हैं:पंचायती राज (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 (PESA Act), अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (Forest Rights Act) शैक्षणिक और नौकरी में आरक्षण, आदि। इन कानूनों को अपेक्षित स्तर पर लागू नहीं किया गया है। न्याय के लिए आज भी बहुत से आदिवासी अपने अधिकारों से वंचित हैं।
आदिवासी बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि वे अपनी संस्कृति से जुड़ाव महसूस करें और शिक्षा में रुचि बढ़ें। दूरस्थ आदिवासी इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और मोबाइल मेडिकल इकाइयों की स्थापना की जानी चाहिए।आदिवासी लोककला, भाषाओं, नृत्यों और परंपराओं को बचाने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं दोनों की भागीदारी आवश्यक है।आदिवासियों को कृषि, जंगल उत्पाद, हथकरघा और हस्तशिल्प जैसे क्षेत्रों में कौशल विकास और बाजार सुविधा देकर आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।स्थानीय स्तर पर आदिवासी नेताओं को आगे लाने से समुदाय की समस्याएं बेहतर तरीके से हल की जा सकती हैं।
विश्व आदिवासी दिवस सिर्फ एक दिन नहीं है, यह एक अवसर है जब हम आदिवासियों के अस्तित्व, उनकी विरासत और उनके अधिकारों को सम्मान देने का संकल्प लेते हैं। आज हमें यह सोचने को मजबूर करता है कि एक समावेशी समाज की रचना तभी संभव है जब आदिवासी समुदाय को समान अवसर और सम्मान प्राप्त होगा।
2025 में इस दिवस को मनाने के लिए, हम केवल उत्सवों तक सीमित न रहें, बल्कि व्यापक बदलाव की दिशा में कदम बढ़ाएँ। आदिवासी हमारी विरासत और भविष्य की दिशा हैं— प्रकृति के अनुकूल जीवन जीने की प्रेरणा मिल सके।”आदिवासी हैं तो प्रकृति है, प्रकृति है तो भविष्य है!”






